phanishwar nath renu| shailendr| teesri kasam |bharat yayavar| rahul raj renu|page-8| फणीश्वर नाथ रेणु | शैलेन्द्र | तीसरी कसम अर्थात मारे गए शैलेन्द्र | भारत यायावर |राहुल राज रेणु |पेज -8
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|| तीसरी कसम अर्थात् मारे गए
शैलेन्द्र || पेज -8
----भारत यायावर
1960 तक शैलेन्द्र अपने गीतों की लोकप्रियता के कारण हिन्दी फिल्म-जगत्
में बड़े गीतकारों की श्रेणी में पहली पायदान पर पहुँच चुके थे। उन्होंने इतना
नाम-यश अर्जित कर लिया था, जिसे बहुत कम कलाकार लम्बा जीवन
जीकर भी नहीं पा सके। वे अब अपनी निर्धनता से भी मुक्त हो चुके थे। उन्होंने खार
में अपना मकान भी बनवाया और अपनी पहली फिल्म ‘बरसात’ की स्मृति में नाम रखा —
‘रिमझिम’। अपने घर के पास ही उन्होंने एक छोटा-सा फ्लैट खरीदा था, जिसमें शाम को अपने मित्रों के साथ बैठक करते। 1959 ई० में बिमल राय प्रोडक्शन में ‘परख’ नामक फिल्म बन रही थी।
शैलेन्द्र ‘परख’ के लिए गीतों के साथ-साथ संवाद भी लिख रहे थे। उस फिल्म से जुड़े
नवेन्दु घोष, बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी, बी०आर० इशारा आदि शाम को शैलेन्द्र
के पास जुड़ते और गपशप होती। उस गपशप में फिल्मों के अलावा साहित्यिक चर्चा भी
होती। उसी समय मोहन राकेश के सम्पादन में राजकमल प्रकाशन से ‘पाँच लम्बी कहानियाँ’
नामक पुस्तक छपी थी, जिनमें एक कहानी ‘तीसरी कसम अर्थात्
मारे गए गुलफ़ाम’ भी थी। इसे सबसे पहले नवेन्दु घोष ने पढ़ा और अत्यधिक प्रभावित
हुए। उन्होंने बासु भट्टाचार्य को वह पुस्तक दी तथा इस कहानी को बांग्ला भाषा में
अनुवाद करने को कहा। बासु भट्टाचार्य 1960 ई० में विमल राय प्रोडक्शन से अलग हो गए थे और स्वयं कोई फिल्म
बनाने की सोच रहे थे। उन्होंने शैलेन्द्र को वह कहानी सुनाई। शैलेन्द्र को वह
कहानी इतनी पसंद आई कि उस पर वे फ़िदा हो गए और उसके फिल्मीकरण का संकल्प लिया।
‘तीसरी क़सम’ का हीरामन ही सिर्फ गुलफाम नहीं था, रेणु दूसरे गुलफाम थे और तीसरे शंकर शैलेन्द्र. परदे पर दीखने वाले
गुलफाम राज कपूर थे, पर परदे के बाहर वे एक सफल
व्यावसायिक फिल्म-निर्माता थे. लेकिन ‘तीसरी कसम’ से राज कपूर की जो छवि निर्मित
होती है- देहाती, भोला-भाला, पवित्र मन का और फूल की तरह का निर्दोष, स्निग्ध चेहरा, एक आम भारतीय जन
की जीती-जागती छवि- वह अविस्मरणीय है. हिन्दी फिल्मों के इतिहास में यह दुर्लभ है.
यह वास्तव में रेणु और शैलेन्द्र के भावों का प्रकटीकरण एवं प्रस्तुतिकरण था. जिस
समय शैलेन्द्र ने ‘तीसरी कसम’ कहानी पढ़ी, उसी समय वह गुलफाम मारा गया. उन्होंने बासु भट्टाचार्य से कहानी
सुनते ही फणीश्वरनाथ रेणु को 23 अक्टूबर, 1960 को एक पत्र लिखा- ‘‘बन्धुवर फणीश्वरनाथ, सप्रेम नमस्कार. ‘पांच लम्बी कहानियां’ पढ़ीं. आपकी कहानी मुझे बहुत
पसंद आयी. फिल्म के लिए उसका उपयोग कर लेने की अच्छी पॉसिबिलिटीज (संभावनाएं) हैं.
आपका क्या विचार है? कहानी में मेरी व्यक्तिगत रूप में
दिलचस्पी है. इस संबंध में यदि लिखें तो कृपा होगी. धन्यवाद. आपका- शैलेन्द्र.’’
अब यहां थोड़ा ठहर कर दूसरे गुलफाम अर्थात् फणीश्वरनाथ रेणु के जीवन
के विषय में संक्षेप में कुछ चर्चा कर लेना आवश्यक है. रेणु शैलेन्द्र से उम्र में
दो साल बड़े थे, किन्तु उन्हीं जैसा रूप-रंग और
हृदय. दोनों शब्द-शिल्पी थे और दोनों का लोक-हृदय था. शैलेन्द्र ने जिस तरह सन्
बयालीस के आन्दोलन में भाग लिया था, वैसे ही रेणु ने भी. दोनों ने जेल की सजा काटी थी. शैलेन्द्र ने
रेलवे मजदूरों की हड़ताल में सक्रिय रूप से भाग लिया था. रेणु ने भारत और नेपाल के
कई मजदूर एवं किसान आन्दोलनों में भाग लिया था. रेणु बिहार के पूर्णिया जिले के
औराही-हिंगना गांव के रहने वाले थे- एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार के. खेती-किसानी
ही उनकी जीविका का मुख्य साधन थी. किन्तु उनके पिताजी शिलानाथ मण्डल जब तक जीवित
रहे, उन्हें घर-परिवार की कोई विशेष चिन्ता नहीं थी. उनका प्रारम्भिक
जीवन साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक सक्रियताओं से
भरा था. वे अपने जनपद के अधिकांश गांवों में जाते, वहां के लोगों से उनका जीवंत सम्पर्क था. बहुत कम उम्र से उन्होंने
लिखना शुरू कर दिया था. पहले कविताएं लिखा करते थे. बाद में उन्होंने कहानी एवं
कथा-रिपोर्ताज लिखना शुरू किया. उनकी पहली परिपक्व कहानी ‘बटबाबा’ अगस्त, 1944 ई. के ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ (कलकत्ता) में छपी. फिर पहलवान की
ढोलक, पार्टी का भूत, कलाकार, रखवाला, न मिटने वाली भूख, प्राणों में घुले हुए रंग, धर्म, मजहब और आदमी, खण्डहर, रेखाएं-वृतचक्र, धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे नामक कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में छपीं.
1946 ई. में श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने पटना से ‘जनता’ नामक साप्ताहिक
पत्र पुनः निकालना शुरू किया, जिसमें रेणु के
अनेक कथा-रिपोर्ताज छपे, जिनमें प्रमुख हैं- डायन कोसी, जै गंगा, रामराज्य, घोड़े की टाप पर लोहे की
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