Teen maut || rahul raj renu ||तीन मौत || राहुल राज रेणु || part-1

|| तीसरी कसम अर्थात् मारे गए
शैलेन्द्र || पेज -4
----भारत यायावर
रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल को ज़ोर देने के लिए उन्होंने कविता
लिखी थी— ‘‘हर ज़ोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है.’’— जो देश भर में एक
नारे या स्लोगन के रूप में आज तक प्रयुक्त हो रही है। 1974 के आन्दोलन में रेणु जी ने ‘हड़ताल’ शब्द की जगह ‘संघर्ष’ शब्द रखकर
इस नारे को और अधिक व्यापक रूप दे दिया था। इस कविता की प्रारम्भिक पंक्तियां इस
प्रकार हैं —
हर ज़ोर- ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है !
मत करो बहाने संकट है, मुद्रा प्रसार इन्फ्लेशन है
इन बनियों और लुटेरों को क्या सरकारी कन्सेशन है?
बंगले मत झांको, दो जवाब, क्या यही स्वराज तुम्हारा है
मत समझो हमको याद नहीं, हैं जून छियालिस की घातें
जब काले गोरे बनियों में चलती थी सौदे की बातें
रह गयी गुलामी बरकरार, हम समझे अब छुटकारा है
प्रगतिवादी परम्परा में शैलेन्द्र की कविताएँ बहुत-कुछ जोड़ती हैं।
उन्हें एक धार देती हैं। ‘‘खून-पसीने से लथपथ पीड़ित-शोषित मानवता की दुर्दम
हुँकारें...’’ शैलेन्द्र की कविताओं में बार-बार सुनाई पड़ती है। उनमें प्रतिबद्धता
है — सामान्य जन के प्रति एवं तीव्र आक्रोश है- शोषक वर्ग के प्रति।
शैलेन्द्र का एकमात्र काव्य-संग्रह — ‘न्यौता और चुनौती’ जो मई 1955 ई० में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, बम्बई से प्रकाशित हुआ था, प्रगतिवादी कविता का एक स्वर्णिम दस्तावेज़ है।
तो ऐसी थी शैलेन्द्र की साहित्यक चेतना। वे पच्चीस वर्ष की उम्र
में ही हिन्दी के लोकप्रिय गीतकारों में अपना स्थान बना चुके थे। देश भर में कहीं
भी कवि-सम्मेलन हो रहा हो, उन्हें निमंत्रित किया जाता। लेकिन
लोकप्रियता पाने के चक्कर में उन्होंने कभी भी अपनी रचनाशीलता को सतही नहीं बनाया.
फिल्मों में जो सतही और भदेस गीति-रचना होती थी, उससे उन्हें घृणा थी। इसीलिए राज कपूर को उन्होंने गीत लिखने से
इन्कार कर दिया। इस बीच वे शादी कर चुके थे। घर-गृहस्थी का खर्च काफी बढ़ गया था।
एक बार उन्हें कुछ रुपयों की सख्त जरूरत पड़ी। कहीं से भी जुगाड़ होना मुश्किल था।
तब उन्हें राज कपूर की याद आयी. वे राज कपूर के पास गए।
आगे का विवरण राज कपूर के ही शब्दों में — ‘‘ ‘आग’ बन गई। ‘बरसात’
शुरू हुई। उस समय हमारा ऑफ़िस फ़ेमस स्टुडियो महालक्ष्मी में था। ऑफिस में बैठा था
कि चपरासी ने आकर खबर दी — कवि शैलेन्द्र आपसे मिलना चाहते हैं। मुझे ‘इप्टा’ वाली
घटना याद आ गई। शैलेन्द्र कुछ निराशा, कुछ चिन्ता और कुछ क्रोध का भाव लिए बेधड़क मेरे कमरे में चले आए।
आते ही बोले — याद है आपको, आप एक मर्तबा मेरे पास आए थे? फ़िल्मों में गाना लिखवाने के लिए? मैंने कहा था — याद है। वे तपाक से बोले — मुझे पैसों की ज़रूरत है।
पांच सौ रुपए चाहिए। जो मुनासिब समझें, काम करवा लीजिएगा। किसी से दबकर या बात को घुमा-फिराकर कुछ कहना तो
उन्होंने सीखा ही नहीं था।’’
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